Jitesh Dhamaniya Life, Philosophy, Science.

जौन एलिया साहब

Mon, Nov 04, 2024
Mon, Apr 07, 2025

मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ
वो क्या शय है जो हारी जा रही है


ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं


फारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है
“मेरे ख़त जला दीजे !
मुझको फ़िक्र रहती है !
आप उन्हें गँवा दीजे !
आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !
देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !”
 
मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
फारेहा निगारिना
ए बनाजुकी मीना
इत्र बेज नसरीना
रश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना
 
मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !
लौह-ए-दिल जला दूं क्या ?
जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है
मैं उसे गंवा दूँ क्या ?
लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ?
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
 
मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के
ख्वाब ख्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख्यालाना
जुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर
उस से डर गयी हो तुम
 
जुर्म के तसव्वुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने
 
 
जुर्म क्यूँ किये जाएँ ?
ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ?